फूटी भली वो आँख जो आँसू से तर नहीं किस काम है वो सीप कि जिस में गुहर नहीं मुनइम है क्या कि जिस से कोई बहरा-वर नहीं किस काम का वो नख़्ल कि जिस में समर नहीं बंदा हूँ बे-ख़ुदी का मैं उस मस्त की जिसे आशोब-ए-रोज़-ए-हश्र से असलन ख़बर नहीं या-रब ख़लिश से आह की हो जो न बहरा-मंद जिस दिल का तकिया-गाह सर-ए-नेश्तर नहीं ऐ दिल ब-रंग-ए-ग़ुंचा न मिल गुल-रुख़ों से तू अपनी गिरह में उन के खिलाने को ज़र नहीं साक़ी है शब की दस्त-दराज़ी का क्या गिला प्यारे जो बे-ख़ुदी में हुआ मो'तबर नहीं नालाँ न हूँ गली में तिरी मैं तो क्या करूँ मुर्ग़-ए-चमन में नाला सिवा कुछ हुनर नहीं जों अश्क एक लग़्ज़िश-ए-पा में गए हैं पार हस्ती से ता-ब-नीस्ती चंदाँ सफ़र नहीं 'क़ाएम' जो इस तरह तू फिरे है ख़राब-ओ-ख़्वार ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब मगर तेरे घर नहीं