गए वो दिन कि तिरी दुश्मनी से डरते थे सज़ा-ए-मौत हैं अब तो तिरी पनाहें भी ज़रूरतों की परस्तिश नज़र में ज़ीनत है नजात कैसे मिलेगी अगर ये चाहें भी क़रीब क़ुर्ब था वो या क़ज़ा से दूरी है बस इक लकीर सी लगती हैं शाहराहें भी हमारी बात ज़रूरी नहीं कि सच ही हो दरून-ए-ज़ात की तस्वीर हैं निगाहें भी ये मेरे घर की अमीरी अजब अमीरी है कि अपने माल को तरसें मिरी निगाहें भी मिज़ाज-ए-अद्ल पर अक्सर गिराँ गुज़रती हैं अमीर ज़ुल्म के पीछे ग़रीब आहें भी हैं आप ताक़ हक़ीक़त की पर्दा-पोशी में कि ख़ुद ही ज़ुल्म करें और ख़ुद कराहें भी