ग़फ़लत में सोया अब तिलक फिर होवेगा होश्यार कब यारी लगाया ख़ल्क़ सूँ पावेगा अपना यार कब झूटी मोहब्बत बाँध कर ग़ाफ़िल रहा अपने सूँ हैफ़ बुलबुल हूँ सँपड़ा दाम में देखेगा फिर गुलज़ार कब ये ख़्वाब-ओ-ख़ुर फ़रज़ंद-ओ-ज़न और माल-ओ-ज़र ज़िंदाँ हुआ तो छूट कर इस क़ैद सूँ हासिल करे दीदार कब हिर्स-ओ-हवा बुग़्ज़-ओ-हसद किब्र-ओ-मनी बुख़्ल ओ जहल इस रह-ज़नान सूँ बाच कर होवेगा बर-ख़ुरदार कब इस नफ़्स-ए-काफ़िर-कश की ख़सलत तुझे मालूम नहिं गर क़त्ल कीता नहिं उसे तुझ को मिले दिलदार कब बिन पीर पहुँचा नहिं कभी कुइ साहिल-ए-मक़्सूद को मल्लाह बिन कश्ती कहीं होती है दरिया पार कब बर-हक़ 'अलीमुल्लाह' कहा रब क़ौल यहदी-मैं-यशा जन्नत के तालिब को कहो आवे नज़र दीदार कब