गई छाँव उस तेग़ की सर से जब की जले धूप में याँ तलक हम कि तब की पड़ी ख़िर्मन-ए-गुल पे बिजली सी आख़िर मिरे ख़ुश-निगह की निगाह इक ग़ज़ब की कोई बात निकले है दुश्वार मुँह से टक इक तो भी तो सुन किसी जाँ-ब-लब की तू शमला जो रखता है ख़र है वगर्ना ज़रूरत है क्या शैख़ दम इक वजब की यकायक भी आ सर पे वामाँदगाँ के बहुत देखते हैं तिरी राह कब की दिमाग़-ओ-जिगर दिल मुख़ालिफ़ हुए हैं हुई मुत्तफ़िक़ अब इधर राय सब की तुझे क्यूँके ढूँडूँ कि सोते ही गुज़री तिरी राह में अपने पिए तलब की दिल अर्श से गुज़रे है ज़ोफ़ में भी ये ज़ोर-आवरी देखो ज़ारी-ए-शब की अजब कुछ है गर 'मीर' आवे मयस्सर गुलाबी शराब और ग़ज़ल अपने ढब की