ग़ैरों की बस्तियों में रहने को आ रहे हैं

ग़ैरों की बस्तियों में रहने को आ रहे हैं
इस दिल को छोड़ कर हम दुनिया बना रहे हैं

सखियाँ सहेलियाँ वो गुज़रा जहाँ लड़कपन
बैठे बिठाए अब क्यों सब याद आ रहे हैं

रोज़ी की जुस्तुजू में अपनों को छोड़ चलना
माज़ी के सारे मंज़र आँखों पे छा रहे हैं

रोका था सब ने हम को लेकिन न रुक सके हम
अब अजनबी ज़मीं के दुख रास आ रहे हैं

आँखों पे छा रही है बरखा गए दिनों की
गुज़रे दिनों के क़िस्से फिर दिल जला रहे हैं

मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू फिर याद आ रही है
मल्हार वो रुतों के ख़ुद को सुना रहे हैं

ख़ुशियों से ख़ुद को कितनी महरूम कर लिया है
परदेस में 'ग़ज़ल' क्यों हम रंज उठा रहे हैं


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