ग़ज़ल हो गई जब भी सोचा तुम्हें फ़साने बने जब भी लिक्खा तुम्हें कभी धूप हो तुम कभी चाँदनी समझ कर भी कोई न समझा तुम्हें ग़रज़ कोई सूरज से हम को नहीं सहर हो गई जब भी देखा तुम्हें मुझे अपने दिल पर बड़ा नाज़ है बड़े नाज़ से जिस ने रक्खा तुम्हें कभी मेरी आँखों में झाँको ज़रा यहाँ कोई तुम सा मिलेगा तुम्हें ये थी 'अश्क' साहब की दीवानगी थे तुम रू-ब-रू फिर भी ढूँडा तुम्हें