ग़ज़ल का मेरी ख़ाका देखता है जो उस गुल का सरापा देखता है पलट कर जब मसीहा देखता है मिरे ज़ख़्मों को हँसता देखता है तिलिस्मी हैं नए इंसाँ की आँखें कि घर में रह के दुनिया देखता है वही किरदार ज़िंदा है जो अपनी कहानी को अधूरा देखता है ये सुन कर मेरी नींदें उड़ गई हैं कोई मेरा भी सपना देखता है जो उड़ते हैं उड़ें 'ग़ालिब' के पुर्ज़े तमाशाई तमाशा देखता है समुंदर बूँद लगता है किसी को कोई ज़र्रे में सहरा देखता है न जाने किस में है कितनी बसीरत न जाने कौन कितना देखता है