ग़लत-फ़हमी की सरहद पार कर के मिटा दो फ़ासले ईसार कर के ये कारोबार भी कब रास आया ख़सारे में रहे हम प्यार कर के लगीं सदियाँ बनाने में जो रिश्ते वो इक पल में चले मिस्मार कर के गले मिल कर ही दूरी दूर होगी मिलेगा क्या हमें तकरार कर के सगे भाई भी अब इक छत के नीचे वो रहते हैं मगर दीवार कर के मसाइल हैं कि बढ़ते जा रहे हैं गुलों का बरमला इज़हार कर के गँवा दी इज़्ज़त-ए-सादात 'मुफ़्ती' मोहब्बत में निगाहें चार कर के