गली में इश्क़ की चला तो हुस्न का फ़ुसूँ चला फ़रेब खा के आदमी वहाँ से सर-निगूँ चला रहा वो साथ जब तलक महक रही थी रहगुज़र हमारे साथ साथ जैसे लश्कर-ए-सुकूँ चला निभा सकी न साथ आशिक़ों का काएनात भी क़दम क़दम मिला के सिर्फ़ जज़्बा-ए-जुनूँ चला तड़प उठी है तिश्नगी लबों पे मेरे इस क़दर न आए जाम मुझ तलक ये दौर में न यूँ चला मुझे हुआ यक़ीन अपने इश्क़ के शबाब पर जब आँसुओं के रास्तों पे मेरे दिल का ख़ूँ चला निगाह-ए-नाज़ से निगाह मिलने की उमीद थी तमाम उम्र चश्म-ए-तर में ख़्वाब गूना-गूँ चला परों से उस के कट गए बुलंदियों के आसमाँ उड़ान भर के जब हवाओं पर दिल-ए-ज़बूँ चला गुज़र गई सदी ये फ़िक्र-ए-तीर-ए-चश्म-ए-नाज़ में तमाम जिस्म छोड़ कर ये सिर्फ़ दिल पे क्यूँ चला हज़ारों आँधियाँ सिमट के पाँव से लिपट गईं उठा तो फिर 'नदीम' इश्क़ की हदों से यूँ चला