गलियाँ उदास खिड़कियाँ चुप दर खुले हुए उकता गया हूँ मैं तो ये सब देखते हुए हाथों पे लिख के चूमता रहता हूँ उस का नाम मुद्दत गुज़र गई है जिसे ख़त लिखे हुए ख़ुशबू-ओ-रंग आब-ओ-हवा साज़-ओ-ख़ामुशी क्या क़ाफ़िले हैं दश्त-ए-ख़ला में रुके हुए कुछ पूछती हैं पेड़ों की सरसब्ज़ टहनियाँ कुछ कह रहे हैं राह में पत्ते गिरे हुए हाथों में ले के चलता हूँ आँखों की मिशअलें हर सम्त हैं फ़ज़ाओं में चेहरे बने हुए मुहताज-ए-अब्र-ओ-बाद हुए अहल-ए-ख़ाक-दाँ हर चंद इस ज़मीं में थे दरिया छुपे हुए ऐ मावरा-ए-फ़िक्र अब आवाज़ दे कि हम ख़ुद से बिछड़ गए हैं तुझे ढूँडते हुए