ग़म का गुमाँ यक़ीन-ए-तरब से बदल गया एहसास-ए-इश्क़ हुस्न के साँचे में ढल गया साथ उन के ले रहा हूँ मैं गुल-गश्त के मज़े ये ख़्वाब ही सही मिरा जी तो बहल गया मजबूर-ए-इश्क़ चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ से हूँ मैं जादू मुझी पे दोस्त का चलना था चल गया मैं इंतिज़ार-ए-ईद में था ईद आ गई अरमान-ए-दीद दामन-ए-इशरत में पल गया है बर्क़-ए-जल्वा याद मगर ये नहीं है याद ख़िरमन मिरे ग़ुरूर का किस वक़्त जल गया पैमान-ए-इश्क़-ओ-हुस्न की तज्दीद के सिवा जो भी ख़याल ज़ेहन में आया निकल गया बढ़ते चले हैं आए दिन अस्बाब-ए-इज़्तिराब यादश-ब-ख़ैर आज का वा'दा भी टल गया 'मंज़ूर' किस ज़बाँ से बुतों को बुरा कहें ईमाँ हमारा कुफ़्र के दामन में पल गया