ग़म को वज्ह-ए-हयात कहते हैं आप भी ख़ूब बात कहते हैं आप से है वो या हमीं से है हम जिसे काएनात कहते हैं कोर-ज़ौक़ी की इंतिहा ये है लोग दिन को भी रात कहते हैं ये ग़लत क्या है तजरबे को अगर हासिल-ए-हादसात कहते हैं बच निकलना फ़रेब-ए-हस्ती से बस इसी को नजात कहते हैं जिस मोहब्बत पे है मदार-ए-हयात उस को भी बे-सबात कहते हैं वो मिरे शे'र ही तो हैं 'शो'ला' जिन को क़ंद-ओ-नबात कहते हैं