ग़म-ए-दिल की ज़बाँ अहल-ए-तशद्दुद कम समझते हैं न दिल को दिल समझते हैं न ग़म को ग़म समझते हैं वो कहते हैं कि हँसना है दिल-ए-इंसाँ की कमज़ोरी नवा-ए-ज़िंदगी को ज़ीस्त का मातम समझते हैं जुनून-ए-कुश्त-ओ-ख़ूँ को नाम देते हैं शुजाअ'त का अमावस की शब-ए-तारीक को पूनम समझते हैं रवादारी को हम समझे हुए हैं दर्द का दरमाँ मोहब्बत को दिल-ए-मजरूह का मरहम समझते हैं 'महावीर' और 'गौतम' और 'गाँधी' जिस के रहरव थे तअ'ज्जुब है कि हम उस राह को पुर-ख़म समझते हैं बनाया है अहिंसा को उसूल-ए-ज़िंदगी हम ने सुकून-ए-ज़िंदगी का राज़ 'तालिब' हम समझते हैं