ग़म-ए-दिल किसी से छुपाना पड़ेगा घड़ी दो घड़ी मुस्कुराना पड़ेगा ये आलाम-ए-हस्ती ये दौर-ए-ज़माना तो क्या अब तुम्हें भूल जाना पड़ेगा बहुत बच के निकले मगर क्या ख़बर थी इधर भी तिरा आस्ताना पड़ेगा अभी मुंकिर-ए-इश्क़ है ये ज़माना जो देखा है उन को दिखाना पड़ेगा चलो मय-कदे में बसेरा ही कर लो न आना पड़ेगा न जाना पड़ेगा न होगा कभी फ़ैसला कुफ़्र ओ दीं का तुम्हें रुख़ से पर्दा हटाना पड़ेगा नहीं भूलता 'सैफ़' अहद-ए-तमन्ना मगर रफ़्ता रफ़्ता भुलाना पड़ेगा