ग़म-ए-दोस्त को आसाइश-ए-दुनिया से ग़रज़ क्या बीमार-ए-मोहब्बत को मसीहा से ग़रज़ क्या सर-ता-ब-क़दम बंदा-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा हूँ मुझ आशिक़-ए-सादिक़ को तमन्ना से ग़रज़ क्या कूचा है तिरा और है दिन-रात का चक्कर वहशी को तिरे गुलशन-ओ-सहरा से ग़रज़ क्या वा'दा न करो जल्वा-ए-दीदार दिखाओ इमरोज़ के मुश्ताक़ को फ़र्दा से ग़रज़ क्या तुम बाग़ में जाते हो तो गुल खिलते हैं क्या क्या फूलों को तुम्हारे रुख़-ए-ज़ेबा से ग़रज़ क्या अक़्ल इतनी कहाँ है कि जो अंजाम को सोचे दुनिया के तलबगार को उक़्बा से ग़रज़ क्या अहबाब हैं मय-ख़ाना है पहलू में है मा'शूक़ अब हज़रत-ए-'शंकर' को तमन्ना से ग़रज़ क्या