ग़म-ए-पैहम की ज़िंदगी भी मिली ग़म में इक लज़्ज़त-ए-ख़फ़ी भी मिली उम्र नौहा-कुनाँ रही सारी इसी नौहे में नग़्मगी भी मिली ग़रफ़शीं शोरिशें गुहार दहाड़ इसी जंगल में सिम्फ़नी भी मिली घुप अँधेरों की रहगुज़ारों में कभी छन-छन के चाँदनी भी मिली इक-न-इक रास्ता तो सब का है ये न पूछो कि रास्ती भी मिली यूँ भी क्या कम थे रह-ज़नान-ए-हवास राह में बीसवीं सदी भी मिली उस अंधेरे का शुक्रिया जिस में हम जो डूबे तो रौशनी भी मिली हम ने माँगी शगुफ़्तगी पाई बे-तलब फिर फ़सुर्दगी भी मिली उम्र-भर क़िस्त क़िस्त मरते रहे मर चुके जब तो ज़िंदगी भी मिली