ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं आबाद अगर नहीं हूँ तो बर्बाद भी नहीं मिलती तिरी वफ़ा की मुझे दाद भी नहीं मजनूँ नहीं है दहर में फ़रहाद भी नहीं कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा इंसाफ़ अगर नहीं है तो बे-दाद भी नहीं इंसाँ की क़द्र क्या है जो हो तेरे रू-ब-रू तेरे मुक़ाबले में परी-ज़ाद भी नहीं अफ़सोस किस से यार की खिंचवाइए शबीह 'मानी' नहीं जहाँ में है 'बहज़ाद' भी नहीं करता है उज़्र-ए-जौर-ओ-जफ़ा यार तू अबस होना जो था हुआ वो हमें याद भी नहीं कुश्ता हुआ हूँ अबरू-ए-ख़मदार-ए-यार का मेरे लिए ज़रूरत-ए-जल्लाद भी नहीं हसरत भरे हुए गए दुनिया से सैकड़ों तस्दीक़ किस से कीजिए शद्दाद भी नहीं 'बहराम' मेरे ज़ोर-ए-तबीअत से है सुख़न शागिर्द मैं नहीं हूँ तो उस्ताद भी नहीं