ग़म-गुसारी का है आलम दूर तक घास पर फैली है शबनम दूर तक एक ही जैसी फ़ज़ा है चार-सू एक ही जैसा है मौसम दूर तक ज़ख़्म अपने देख कर ज़ाहिर हुआ बाँटता है कोई मरहम दूर तक छेड़ती है बे-ख़ुदी के सिलसिले शब के सन्नाटों में सरगम दूर तक अपने मुस्तक़बिल से होते बा-ख़बर देख पाते काश जो हम दूर तक साहिल-ओ-दरिया को 'ख़ंदा' क्या लिखूँ देखती हूँ कोई संगम दूर तक