ग़म सहे रुस्वा हुए जज़्बात की तहक़ीर की हम ने चाहा आप को हम ने बड़ी तक़्सीर की रौज़न-ए-ज़िंदाँ से दर आई है सूरज की किरन बन गई नाक़ूस-ए-आज़ादी सदा ज़ंजीर की ख़ून के छींटे पड़े हैं शैख़ की दस्तार पर शहर की गलियों से आई है सदा तकबीर की ज़ात के अंदर तलातुम ज़ात के बाहर सुकूत मस्लहत-कोशी ने कैसी शख़्सिय्यत तामीर की घर के दरबानों ने सारे घर पे क़ब्ज़ा कर लिया हम ने आँखें खोलने में किस क़दर ताख़ीर की रास्ता ढूँडो कि मंज़िल ज़ात में महसूर है बंद दरवाज़ों के बाहर है किरन तनवीर की