ग़मों की भीड़ ने कुचला है मुझ को शादमानी में लगाना चाहता था तिश्नगी की आग पानी में हर इक शय उड़ गई मेरी हवाओं की रवानी से सिमट के रह गई ख़्वाहिश वफ़ाओं की जवानी में हमेशा चश्म में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता मैं रहना चाहता हूँ ऐ समुंदर तेरे पानी में तिरी बस्ती के मुजरे से तिरी औक़ात क्या पूछूँ गधे भी शेर बन जाते अपनी मेज़बानी में मैं पढ़ कर होश खो बैठा तिरे क़िस्से को ऐ फ़ुर्क़त मोहब्बत का नशा है इस शब-ए-ग़म की कहानी में वो पीली ओढ़नी वाली अभी भी दिल में रहती है ये लड़का खो गया है उस के रंग-ए-ज़ाफ़रानी में वो जिस दिन 'फ़ैज़' आएगी मेरी चौखट पे मिलने को उसी दिन मो'जिज़ा होगा मिरी भी ज़िंदगानी में