ग़मों में डूबी हुई है हर इक ख़ुशी मेरी अजीब तौर से गुज़री है ज़िंदगी मेरी हर एक लम्हा गुज़रता है हादसे की तरह बस एक दर्द-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी ख़याल-ओ-फ़िक्र ने क्या क्या सनम तराशे थे तमाम उम्र परस्तिश में कट गई मेरी मिरा सफ़ीना-ए-हस्ती है और मौज-ए-बला तमाशा देखती रहती है बेबसी मेरी हुजूम-ए-दर्द में गुम हो गई मिरी आवाज़ ज़माने वालों ने रूदाद कब सुनी मेरी मिरी हयात अधूरी रही तुम्हारे बग़ैर बताओ तुम ने भी महसूस की कमी मेरी ग़म-ए-हयात की रूदाद थी मगर 'मुमताज़' समझ लिया उसे लोगों ने शाइ'री मेरी