ग़मों से बशर को रिहा देखना सुलगती कोई जब चिता देखना गुज़रना अक़ीदत से कुछ इस तरह कि पत्थर में अपना ख़ुदा देखना ये करना दुआ कि लगे न नज़र शजर जब कोई तुम हरा देखना न हो मुतमइन सौंप कर कश्तियाँ डुबो दे न ये नाख़ुदा देखना बुलंदी पे ख़ुद को भी पाना कभी समय की बदलती अदा देखना है मुमकिन नतीजा जुदाई भी हो मगर इश्क़ की इब्तिदा देखना न जाने घड़ी कौन हो आख़िरी हुए फ़र्ज़ सारे अदा देखना