गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ बाँके मुग़ल बचे न करें ख़ाना-जंगियाँ शोख़ी-मिज़ाज उस के से अब तक गई नहीं वैसे ही बाँकपन हैं वही ग़ोला-दंगियाँ बुलबुल के अश्क-ए-सुर्ख़ ने ये क्या ग़ज़ब किया जो तीलियाँ क़फ़स की सभी ख़ूँ में रंगियाँ गर्दूं अगरचे दिन को ग़ज़ाल-ए-सियाह है पर शब को मेरे साथ करे है पलंगियाँ देखा न होगा वो कभी 'बेज़न' ने चाह में जो दिन मुझे दिखाती हैं क़िस्मत की तंगियाँ आरिज़ पे तेरे जोशिश-ए-ख़त्त-ए-सियाह है या रोम पर चढ़ आई है ये फ़ौज-ए-ज़ंगियाँ क्या जाने किस से बिगड़ी है दरिया में 'मुसहफ़ी' लहरों के हाथों में हैं जो तलवारें नंगियाँ