गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक कर दीजे ज़मीं ओ आसमाँ एक आशिक़ का तिरे हमारे ग़म ने छोड़ा न बदन में उस्तुखाँ एक हम छूट के जब क़फ़स से आए देखा न चमन में आशियाँ एक कहती थी ख़ल्क़ रह ऐ ज़ुलेख़ा कनआँ से चला है कारवाँ एक यक-रंगी कहें हैं किस को, यानी दो शख़्स का होवे जिस्म ओ जाँ एक साज़िश किसी ढब से कर भी लीजे उस दर पे जो होवे पासबाँ एक है वाँ तो नया रक़ीब हर दम होने पाते हैं हम कहाँ एक हसरत है कि यूँ लुटे चमन और गुल हम को न देवे बाग़बाँ एक आहिस्ता कि क़ाफ़िले के पीछे आता है ग़रीब-ए-ना-तवाँ एक हम करते हैं सौ ज़बाँ से बातें यूँ कहने को मुँह में है ज़बाँ एक इस पर भी ऐ 'मुसहफ़ी' हमारा क़िस्सा एक और है दास्ताँ एक