गर उस से रब्त मिरा सिर्फ़ इख़्तिलाफ़ी था तो उस का रद्द-ए-अमल क़ाबिल-ए-मुआ'फ़ी था मोहब्बतों में मफ़ादात कौन याद रखे सो हम को अपने लिए एक नाम काफ़ी था चराग़ जब भी जलाया कोई तो गुल न किया ये रौशनी की रिवायात के मुनाफ़ी था उसे ख़याल था मेरी शिकस्ता-पाई का ये जानना भी तो उस ज़ख़्म की तलाफ़ी था 'हुमैरा' उम्र गुज़ारी तो ए'तिबार आया कि इस मकान का सामान सब इज़ाफ़ी था