गरचे इस बुनियाद-ए-हस्ती के अनासिर चार हैं लेकिन अपने नीस्त हो जाने में सब नाचार हैं दोस्ती और दुश्मनी है इन बुताँ की एक सी चार दिन हैं मेहरबाँ तो चार दिन बेज़ार हैं जी कोई मंसूर के जूँ जान करते हैं फ़िदा वे सिपाही आशिक़ों की फ़ौज के सरदार हैं ये जो सजती है कटारी-दार मशरू की इज़ार मारने के वक़्त आशिक़ के नंगी तरवार हैं दोस्ती और प्यार की बातों पे ख़ूबाँ की न भूल शोख़ होते हैं निपट अय्यार किस के यार हैं जो नशा ज्वानी का उतरेगा तो खींचेंगे ख़ुमार अब तो ख़ूबाँ सब शराब-ए-हुस्न के सरशार हैं किस तरह चश्मों सेती जारी न हो दरिया-ए-ख़ूँ थल न पैरा 'आबरू' हम वार और वे पार हैं