गरचे महफ़ूज़ रहे फूल समर होने तक फिर उन्हें रोक न पाओगे शजर होने तक दिल में बस जाओ कि ये दर-ब-दरी ठीक नहीं इस मकाँ में ही रहो तुम कोई घर होने तक तुम तो सूरज के परस्तार हो तुम क्या जानो क्या गुज़र जाती है इक शब पे सहर होने तक थकने वाले नहीं इस राह के राही हरगिज़ करते जाएँगे सफ़र गर्द-ए-सफ़र होने तक हौसले ज़र्रा-ए-नाचीज़ के देखो 'क़ैसर' ज़ुल्मत-ए-शब से लड़े शम्स-ओ-क़मर होने तक