गर्दिश जिसे मतलूब है गुलज़ार में आवे है इश्क़ जिसे वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे इक रोज़ कभी शक्ल-ए-ख़रीदार में आवे देखे तो ज़रा कूचा-ओ-बाज़ार में आवे जाते हुए जावे है अज़ीज़ों को रुला कर मौलूद जो रोता हुआ संसार में आवे हूँ सामने मैं उस के वो मारे कि जलावे मंज़ूर है जो भी निगह-ए-यार में आवे बदनाम अगर होगा तो क्या नाम न होगा है शौक़ उसे सुर्ख़ी-ए-अख़बार में आवे दावत का अगर शौक़ है जावे वो कहीं और करने को सियासत न वो इफ़्तार में आवे आईने में शक्ल उस की दिखा देगा वो उस को 'बर्क़ी' के अगर लुत्फ़ उसे अशआ'र में आवे