गर्दिश-ए-वक़्त से लड़ना है झगड़ना है अभी चढ़ते सूरज हैं हमें और उभरना है अभी हौसले दूरी-ए-मंज़िल से न थक जाएँ कहीं कितनी पुर-ख़ार सी राहों से गुज़रना है अभी नोक-ए-मिज़्गाँ पे उतर आए हैं आँसू ऐसे अब्र-ए-बाराँ की तरह जैसे बरसना है अभी उस को ख़्वाबों में बसा रक्खा है ख़ुशबू की तरह और ता'बीर तलक उस को ठहरना है अभी ठोकरें हम को सँभलने का सबक़ देती है बारहा तुम को 'सदफ़' गिरना सँभलना है अभी