गर्दिशों से यूँ उभर जाने को जी चाहता है शाम से पहले ही घर जाने को जी चाहता है तुम को रखना है रखो तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का भरम मेरा वा'दे से मुकर जाने को जी चाहता है मुल्क-ओ-मज़हब के क़वानीन तो सर आँखों पर इश्क़ में हद से गुज़र जाने को जी चाहता है फ़र्श-ए-दुनिया पे मैं मुद्दत से जिया हूँ अब तो चाँद-तारों से गुज़र जाने को जी चाहता है बाद मरने के मुझे याद रखे ये दुनिया काम कुछ ऐसे भी कर जाने को जी चाहता है ज़िंदगी दी है उसी ने वही मारेगा मगर इन दिनों यूँ है कि मर जाने को जी चाहता है बिन बुलावा मैं कभी 'नज़्र' न जाता हूँ कहीं बज़्म है उन की मगर जाने को जी चाहता है