ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का ये पेश-ख़ेमा है ज़ालिम तिरी तबाही का ख़दंग-ए-आह को रोके रहा हूँ फ़ुर्क़त में ख़याल है मुझे अफ़्लाक की तबाही का उमीद कैसे हो महशर में सुर्ख़-रूई की हमेशा काम किया हो जो रू-सियाही का सलाम तक नहीं लेते कलाम तो कैसा फ़क़ीरी में भी तबख़्तुर है बादशाही का शिकस्त-ओ-फ़त्ह का ज़िम्मा नहीं दिल-ए-नादाँ लड़े हज़ार में ये काम है सिपाही का ख़िज़ाब करते हैं दुनिया से जब गए गुज़रे शुगून करते हैं पीरी में रू-सियाही का न आसमाँ की इनायत न मेहरबाँ वो शोख़ न पूछो हाल ग़रीबों की बे-पनाही का सफ़ेद बालों पे किस वास्ते ख़िज़ाब लगाएँ गया ज़माना जवानी में रू-सियाही का ख़ताएँ हो गईं मादूम हज से ऐ 'परवीं' गवाह ख़ुद है ख़ुदा मेरी बे-गुनाही का