ग़रज़ रहबर से क्या मुझ को गिला है जज़्ब-ए-कामिल से कि जितना बढ़ रहा हूँ हट रहा हूँ दूर मंज़िल से सुकूत-ए-बे-महल तक़रीर-ए-बे-मौक़ा की तोहमत क्यूँ उठाना हो तो यूँ हम को उठा दो अपनी महफ़िल से ये अरमान-ए-तरक़्क़ी आज है दावा ख़ुदाई का उसी दिल का जो कल तक था लहू की बूँद मुश्किल से गुल-ओ-लाला पे आख़िर कर रहा है ग़ौर क्या गुलचीं ये वो ख़ूँ है जो टपका था कभी चश्म-ए-अनादिल से शब-ए-महताब दरिया का किनारा और ये सन्नाटा तुम्हें इस साज़ पर हम ख़ुश करेंगे नग़्मा-ए-दिल से ग़ज़ब है जल के परवानों का उन की बज़्म में कहना 'रवाँ' या यूँ फ़िदा हो जाओ या उठ जाओ महफ़िल से