गर्मी मिरे क्यूँ न हो सुख़न में इक आग सी फुंक रही है तन में वो रश्क-ए-गुल आए गर पस-अज़-मर्ग फूला न समाऊँ मैं कफ़न में हुश्यारी में कब है ऐसी लज़्ज़त जो कुछ है मज़ा दिवाना-पन में ख़्वारी का मिरी वो लुत्फ़ समझे कामिल हो जो आशिक़ी के फ़न में गर्दिश जिन्हें मिस्ल-ए-आसिया है दाइम उन्हें है सफ़र वतन में नासेह मैं रफ़ू को तब कहूँ आह हालत हो जो कुछ भी पैरहन में ऐ बाद-ए-ख़िज़ाँ वो क्या हुए गुल ख़ाक उड़ने लगी है क्यूँ चमन में बेताबी-ए-दिल करे है रुस्वा क्या जाइए उस की अंजुमन में है तिरा ही ध्यान और कुछ अब बाक़ी नहीं तेरे ख़स्ता-तन में जल्द उस को दिखा दे शक्ल ऐ जाँ रह जाएगी वर्ना मन की मन में घर में जो नहीं वो यार 'जुरअत' घबराए है अपनी जान तन में है जी में कि ख़ाना कर के वीराँ जा बैठिए इक उजाड़ बन में