गाँठी है उस ने दोस्ती इक पेश-इमाम से 'आदिल' उठा लो हाथ दुआ-ओ-सलाम से पानी ने रास्ता न दिया जान-बूझ कर ग़ोते लगाए फिर भी रहे तिश्ना-काम से मैं उस गली से सर को झुकाए गुज़र गया चिलगोज़े फेंकती रही वो मुझ पे बाम से वो कौन था जो दिन के उजाले में खो गया ये चाँद किस को ढूँडने निकला है शाम से कोने में बादशाह पड़ा ऊँघता रहा टेबल पे रात कट गई बेगम ग़ुलाम से नश्शा सा डोलता है तिरे अंग अंग पर जैसे अभी भिगो के निकाला हो जाम से