ग़ुबार-ए-दर्द से सारा बदन अटा निकला जिसे भी ख़ंदा-ब-लब देखा ग़म-ज़दा निकला अब एहतियात भी और क्या हो बे-लिबास तो हूँ इक आस्तीन से माना कि अज़दहा निकला मिरे ख़ुलूस पे शक की तो कोई वज्ह नहीं मिरे लिबास में ख़ंजर अगर छुपा निकला लगा जो पीठ में नेज़ा तो समझे दुश्मन है मगर पलट के जो देखा तो आशना निकला मिरे लहू से है रंगीं जबीन-ए-सुब्ह तो क्या चलो कि ज़ुल्मत-ए-शब का तो हौसला निकला ये हाथ राख में ख़्वाबों की डालते तो हो मगर जो राख में शोला कोई दबा निकला सुना था हद्द-ए-तबस्सुम है आँसुओं से क़रीब बढ़े जो आगे तो बरसों का फ़ासला निकला वो एक हर्फ़-ए-तमन्ना जो कहते डरते थे ज़बाँ पे आया तो उन का ही मुद्दआ निकला कुलाह कज किए दिन भर जो शख़्स फिरता था गली में शाम को देखा तो वो गदा निकला तुलूअ सुब्ह 'नईमी' जहाँ से होनी थी उसी उफ़ुक़ से अंधेरों का सिलसिला निकला