ग़ुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ मैं अपना दर्द हमा-गीर करता रहता हूँ रिदा-ए-लफ़्ज़ चढ़ाता हूँ तुर्बत-ए-दिल पर ग़ज़ल को ख़ाक-ए-दर-ए-'मीर' करता रहता हूँ नबर्द-आज़मा हो कर हयात से अपनी हमेशा फ़त्ह की तदबीर करता रहता हूँ न जाने कौन सा ख़ाका कमाल-ए-फ़न ठहरे हर इक ख़याल को तस्वीर करता रहता हूँ बदलता रहता हूँ गिरते हुए दर-ओ-दीवार मकान-ए-ख़स्ता में ता'मीर करता रहता हूँ लहू रगों का मसाफ़त निचोड़ लेती है मैं फिर भी ख़ुद को सफ़र-गीर करता रहता हूँ उदास रहती हैं मुझ में सदाक़तें मेरी मैं लब-कुशाई में ताख़ीर करता रहता हूँ सदाएँ देती हैं 'सालिम' बुलंदियाँ लेकिन ज़मीं को पाँव की ज़ंजीर करता रहता हूँ