ग़ुबार-ओ-गर्द ने समझा है रहनुमा मुझ को तलाश करता फिरा है ये क़ाफ़िला मुझ को तवील राह-ए-सफ़र पर हैं फूट फूट पड़ा न क्यूँ समझते मिरे पैर आबला मुझ को शिकस्त-ए-दिल की सदा हूँ बिखर भी जाने दे ख़ुतूत-ओ-रंग की ज़ंजीर मत पिन्हा मुझ को ज़मीन पर है समुंदर फ़लक पे अब्र-ए-ग़ुबार उतारती है कहाँ देखिए हवा मुझ को सुकूत तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का इक गराँ लम्हा बना गया है सदाओं का सिलसिला मुझ को वो दूर दूर से अब क्यूँ मुझे जलाता है क़रीब आ के बहुत जो बुझा गया मुझ को रचा के एक तिलिस्म-ए-सवाबित-ओ-सय्यार कशिश में अपनी बुलाने लगा ख़ला मुझ को