ग़ुरूर-ए-कोह के होते नियाज़-ए-काह रखते हैं तिरे हम-राह रहने को क़दम कोताह रखते हैं अंधेरों में भी गुम होती नहीं सम्त-ए-सफ़र अपनी निगाहों में फ़िरोज़ाँ इक शबीह-ए-माह रखते हैं ये दुनिया क्या हमें अपनी डगर पर ले के जाएगी हम अपने साथ भी मर्ज़ी की रस्म-ओ-राह रखते हैं वो दीवार-ए-अना की ओट किस किस आग जलता है दिल ओ दीदा को सब अहवाल से आगाह रखते हैं दर-ओ-बसत-ए-जहाँ में देखते हैं सक़्म कुछ 'आली' और अपनी सोच का इक नक़्शा-ए-इस्लाह रखते हैं