ग़ुरूब-ए-मेहर का मातम है गुलिस्तानों में नसीम-ए-सुब्ह भी शामिल है नौहा-ख़्वानों में जहाँ थे रक़्स-ए-तरब में कभी दर-ओ-दीवार बलाएँ नाच रही हैं अब उन मकानों में अँधेरी रात भयानक खंडर मुहीब फ़ज़ा भटक रहा हूँ अजल के सियाह-ख़ानों में ये आमद आमद-ए-तूफ़ान-ए-शब ख़ुदा की पनाह तुयूर-ए-शाम सिमट जाएँ आशियानों में ये साएँ साएँ की आवाज़ है कि मौत की हूक जो गूँजती है शयातीन के तरानों में नदीम-ए-शब कोई अफ़साना-ए-फुसून-ओ-तिलिस्म कि ज़िंदगी की झलक है इन्हीं फ़सानों में नहीं है शहर-ए-वफ़ा की तबाहियों का गिला मगर वो लोग जो रहते थे इन मकानों में अजीब थीं ये ग़रीबों की बस्तियाँ लेकिन ग़रीब रह न सके इन ग़रीब-ख़ानों में हमारी गर्द-ए-सफ़र भी न अब मिले शायद 'रईस' अहल-ए-तमन्ना के कारवानों में