गाँव रफ़्ता रफ़्ता बनते जाते हैं अब शहर क़र्या क़र्या फैल रहा है तन्हाई का ज़हर मुझ को डसता रहता है बस हर दम यही ख़याल एक ही रुख़ पर क्यूँ बहता है दरिया आठों पहर कौन सा भूला-बिसरा ग़म था जो आया है याद रह रह कर फिर दिल में उट्ठे दर्द की मीठी लहर मेरा जीते रहना भी तो बन गया एक अज़ाब लेकिन मेरा मरना भी तो हो जाएगा क़हर लगता है कुछ अनहोनी सी होने वाली है दरहम-बरहम होने को है जैसे निज़ाम-ए-दहर