गया था बज़्म-ए-मोहब्बत में ख़ाली जाम लिए कटी है उम्र गदाई का इत्तिहाम लिए कहीं हुए भी जो रौशन मोहब्बतों के चराग़ हवाएँ दौड़ पड़ीं वहशतों के दाम लिए तिलिस्म-ए-राज़ न खुल जाए तंग-बीनों पर तुम्हारे नाम से पहले हज़ार नाम लिए भटक रहा हूँ मैं तन्हाइयों के जंगल में हयात रक़्स में है हुस्न-ए-सुब्ह-ओ-शाम लिए कभी मिली थी जो इक दर्द-ए-ना-रसा की ख़लिश मैं जी रहा हूँ वही ज़ख़्म-ए-ना-तमाम लिए किसी की याद में अक्सर यही हुआ महसूस फ़लक ज़मीन पे उतरा मह-ए-तमाम लिए मिली है गर्दिश-ए-अय्याम हर ज़माने में सहर उमीद की और जाँ-कनी की शाम लिए