गया वो ख़्वाब-ए-हक़ीक़त को रू-ब-रू कर के बहुत उदास हूँ मैं उन से गुफ़्तुगू कर के अभी न छोड़ क़बा-ए-उमीद का दामन अभी तो ज़ख़्म छुपा चाक-ए-दिल रफ़ू कर के करो न दफ़्न कि मक़्तल का नाम ऊँचा हो लिटा दो ख़ाक पे लाशे को क़िबला-रू कर के उन्हीं में माह-सिफ़त भी हैं मेहर-आसा भी मिले हैं दाग़ कई उन की आरज़ू कर के उठो 'नईम' कि बाग़-ए-अदम से हो आएँ वहीं गए हैं 'तपिश' दिल को यूँ लहू कर के