घड़ी घड़ी न मुझे पूछ एक ताज़ा सवाल उदास रात के सीने पे और बोझ न डाल खिले हैं फूल सुख़न के जली है शम-ए-ख़याल क़फ़स में झाँक के देखो क़फ़स-ज़दों का कमाल उसी के ज़िक्र से हम शहर में हुए बद-नाम वो एक शख़्स कि जिस से हमारी बोल न चाल तिरे वजूद पे छा कर तिरी नज़र से गिरे हमीं ने राज किया था हमीं हुए कंगाल बिछड़ गया न वो आख़िर अधूरी बात लिए मैं उस से कहता रहा रोज़ रोज़ बात न टाल सितमगरी की नई रस्म ढूँड ली उस ने हमारे सामने देता है दूसरों की मिसाल कभी जो बैठ गए जा के दो घड़ी उस पास 'नज़र'-जी! धुल गया बरसों का जी से हुज़्न-ओ-मलाल