ग़ैर उन को लगाए सीने से मौत बेहतर है ऐसे जीने से होश में ला रहे हैं वो मुझ को गुल-ए-रुख़्सार के पसीने से ग़ैर की बात पर न जाओ तुम क्यों उलझते हो उस कमीने से कितने अंदाज़ वो दिखाते हैं जब लगाता हूँ उन को सीने से बज़्म में किस की आमद आमद है चीज़ें रक्खी हैं सब क़रीने से गर्मी-ए-हुस्न दुख़्त-ए-रज़ देखो छलकी पड़ती है आबगीने से हम ही थे जो निभा चुके बरसों ग़ैर आजिज़ है दो महीने से उस जगह और कौन बैठा है क्यों है इंकार तुम को पीने से रूठे कब तक रहोगे 'हाजिर' से आओ अब लग भी जाओ सीने से