ग़लत-सलत था वो जिस को दुरुस्त मान लिया ख़ुद अपने ज़ब्त का हम ने भी इम्तिहान लिया मैं क्या करूँगा ज़माने को जान कर आख़िर यही बहुत है ज़माने ने मुझ को जान लिया हमारे होते हुए तंग पड़ न जाए कहीं बची-खुची सी मोहब्बत को खींच तान लिया कहीं वो वस्ल का चश्मा दिखाई दे न सका तुम्हारे हिज्र का सहरा तमाम छान लिया शिकस्त मानना आसान तो नहीं फिर भी कहा चराग़ का इक दिन हवा ने मान लिया मिरी निगाहों में तस्वीर मेरे क़ातिल की वही था जिस ने मिरा आख़िरी बयान लिया किसी ने कब है ज़मीं पर हमारा साथ दिया सफ़र में साथ लिया भी तो आसमान लिया मिला है सब्र का ये फल खड़े खड़े आख़िर मुझे दरख़्तों ने दिल से दरख़्त मान लिया तिरी सफ़ाई में ये दिल अकेला क्या करता तुम्हारा नाम वहाँ सब ने यक-ज़बान लिया