ग़म दिया है तो सिवा हौसला-ए-ग़म देना ये तो इक आग है फिर क्या इसे शबनम देना अब भी सोई हुई रातों की थकन बाक़ी है ख़्वाब देना हों ज़रूरी तो ज़रा कम देना वक़्त से ही मुझे उम्मीद मसीहाई की थी वक़्त ही भूल गया ज़ख़्म को मरहम देना उस ने ता'बीर के सब भेद छुपाए हम से जिस ने सीखा है हमें ख़्वाब का आलम देना