ग़म से फ़ारिग़ तिरे हरगिज़ दिल-ए-नाशाद न हो

ग़म से फ़ारिग़ तिरे हरगिज़ दिल-ए-नाशाद न हो
जो गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत है वो आज़ाद न हो

आग उस घर में लगे तुझ से जो आबाद न हो
ख़ाक हो जाए वो दिल जिस में तिरी याद न हो

भूल जाने से तिरे मुझ को ये होता है यक़ीं
क्या अजब मौत को भी शक्ल मिरी याद न हो

ले उड़ी है तो उसे उस की गली में पहूँचा
ऐ सबा ख़ाक हमारी कहीं बर्बाद न हो

दम में सौ रंग बदलता हूँ तप-ए-फ़ुर्क़त में
कैसे आजिज़ मिरी तस्वीर में बहज़ाद न हो

ख़्वाब में भी रहे उस ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल का ख़याल
या ख़ुदा क़ैद-ए-मोहब्बत से दिल आज़ाद न हो

अक़्ल से काम न रक्खे कभी आशिक़ तेरा
बंदा-ए-पीर-ए-मुग़ाँ क़ाइल-ए-ज़ुहहाद न हो

बेड़ियाँ कितनी ही तिनकों की तरह तोड़ी हैं
दस्त-ए-वहशत कहीं शाकी तिरा हद्दाद न हो

बे-तरह बाग़ में गुलचीं ने हवा बाँधी है
निकहत-ए-गुल कहीं गुलज़ार में बर्बाद न हो

शब का हंगाम है राहत से वो आराम करें
गोश-ज़ौ उन के इलाही मिरी फ़रियाद न हो

‘तालिबा’ मरने पे राज़ी हूँ मगर ख़ौफ़ ये है
क़त्ल के बाद भी कोई सितम ईजाद न हो


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