घंटियाँ बजने से पहले शाम होने के क़रीब छोड़ जाता मैं तिरा गाँव मगर मेरे नसीब धूप फैली तो कहा दीवार ने झुक कर मुझे मिल गले मेरे मुसाफ़िर, मेरे साए के हबीब लौट आए हैं शफ़क़ से लोग बे-नील-ए-मुराम रंग पलकों से उठा लाए मगर तेरे नजीब मैं वो परदेसी नहीं जिस का न हो पुरसाँ कोई सब्ज़ बाग़ों के परिंदे मेरे वतनों के नक़ीब