घर को यूँ तोड़ो कि फिर हसरत-ए-तामीर न हो कोई तक़दीर न हो और कोई तदबीर न हो ऐसे मर जाएँ कोई नक़्श न छोड़ें अपना याद दिल में न हो अख़बार में तस्वीर न हो बैठे बैठे यूँही अँधियारे में ज़ाइल हो जाएँ कोई दम-साज़ न हो कोई ख़बर-गीर न हो नींद में तितलियाँ आँखों में लहकती जाएँ ख़्वाब देखें मगर उस ख़्वाब की ताबीर न हो कौन सनता है मिरे शेर यहाँ अब 'मामून' ऐन-मुमकिन है मिरी बात में तासीर न हो