घर नहीं बस्ती नहीं शोर-ए-फ़ुग़ाँ चारों तरफ़ है एक चौथाई ज़मीं पर आसमाँ चारों तरफ़ है दौड़ते हैं रात-दिन तीन आँख बारह हाथ वाले सर्द सन्नाटे में आवाज़-ए-सगाँ चारों तरफ़ है लॉंचर रॉकेट क्लाशनीकोफ़ बारूदी सुरंगें ख़ून का दरिया पहाड़ों में रवाँ चारों तरफ़ है जिस्म है तो सर नहीं सर है तो दस्त-ओ-पा नहीं अर्ज़-ए-पुर-असरार में हू का समाँ चारों तरफ़ है सुरमई कोहसार की चोटी पे बर्फ़ानी परिंदा बस कि गुल की चाह में गश्त-ए-ख़िज़ाँ चारों तरफ़ है इशारे से अलामत तक ज़बाँ ख़ामोश मेरी कल 'ज़ुबैर' अपना था आज उस का ज़ियाँ चारों तरफ़ है